एकत्व समता प्यार, जीवन में खुशी अपार : सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज
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संसार का हर इन्सान प्रसन्नता चाहता है और प्रसन्नता पाने के लिए वह निरंतर प्रयासरत रहता है। हम सभी जन्म तो एक बच्चे के रूप में ही लेते हैं, लेकिन आयु के बढऩे के साथ-साथ किसी न किसी तरह अपने आनन्द की स्थिती को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। जीवन में खुशियां प्राप्त करने के लिए हम हर संभव प्रयास करते हैं; अच्छा खाना खाने से लेकर महंगे कपड़े पहनने तक, शिक्षा से लेकर सम्पूर्ण विश्व की यात्रा करने तक, अपने सपनों का घर खरीदने से लेकर आरामदायक कार खरीदने तक, इसके साथ ही और भी बहुत कुछ हम अपनी ख़ुशी कायम रखने के लिए करते रहते हैं। ख़ुशी फिर भी कभी हाथ न आने वाली एक महत्वाकांक्षा ही बनी रहती है। अलग-अलग लोगों के लिए इच्छाओं और उनकी पूर्ति के आधार पर ख़ुशी का एक अलग अर्थ होता है। इच्छाओं के फल के रूप में मिलने वाला सुख अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। एक इच्छा दूसरी इच्छा की ओर ले जाती है और दूसरी तीसरी की ओर, इसी तरह आशाओं-आकांक्षाओं की एक अंतहीन शृंखला बन जाती है, फिर भी खुशी अभी भी हमारे लिए दूर का सपना ही रहती है। इसका कारण यह है कि हम सच्चे सुख के सार और उसकी गहराई को नहीं समझते हैं।
सच्चा सुख मन की वह आनंदमय अवस्था है जिसमें स्थिरता और सहजता मौजूद है। यह एक ऐसे स्वप्न लोक की अवस्था है जहां कोई आसक्ति, शत्रुता, भ्रम या भय नहीं है; एक ऐसी अवस्था जहां उम्मीदों के स्थान पर कृतज्ञता है, शत्रुता के स्थान पर प्यार है, भय और भ्रम के स्थान पर आध्यात्मिक जागृति है। हालांकि यह एक कार्य प्रतीत हो सकता है, लेकिन वास्तव में यह एक बहुत ही सरल प्रक्रिया है जो एक ऐसे परम अस्तित्व से जुड़कर शुरू होती है, जो सर्वथा स्थिर है। हमें नजऱ आने वाला यह भौतिक संसार नित्य परिवर्तनशील है और इस परिवर्तनशील जगत में अगर कुछ अपरिवर्तनशील और अविनाशी है तो एकमात्र यह सर्वव्यापी, शाश्वत, आकार रहित निरंकार परमात्मा ही है। जब तक हम अपने शरीर, मन और सम्पदाओं से अलग अपनी पहचान नहीं बनाकर रखते हैं तब तक हम भय, भ्रम, मोह और अहंकार के जाल में फंसे ही रहेंगे। हमें सत्य-प्रभु को जानकर अपने सत्य आत्म स्वरूप को महसूस करने की आवश्यकता है; यह सृजनकर्ता और सृष्टि के बीच व्यापक अंतर को खोजने और पाने की एक प्रक्रिया है, सृष्टि में सृजनकर्ता और सृजनकर्ता में सृष्टि के दर्शन करने का प्रयास है। परमात्मा का यह ज्ञान सन्तों-महात्माओं द्वारा युगों-युगों से दिया जाता रहा है। उन्होंने स्वयं निराकार प्रभु की उपस्थिति का एहसास किया और इससे जो अनन्त सुख और आनंद प्राप्त किया उसे ही आगे भक्तों को प्रदान किया। प्रभु का यह एहसास और इसका साक्षात्कार आज भी प्राप्त किया जा सकता है। एक बार जब हम जीवन के इस दिव्य और सर्वोच्च परमसत्ता निरंकार का एहसास कर लेते हैं कि हम आत्मा रूप में इस परम पावन सत्ता का एक अनिवार्य अंग हैं, फिर हम इस सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान निराकार का आधार लेकर शाश्वत सुख के मार्ग पर आगे बढऩा शुरू कर देते हैं।
आइए, इस अद्भुत यात्रा के बारे में बात करते हैं। पहली बात तो यही कि हम अपने जीवन में चीजों को बहुत हल्के में लेते हैं और अधिक से अधिक चीजें प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं, यही हमारे दुख का कारण बन जाता है। उदाहरण के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन को कभी भी हमने उतनी गंभीरता से प्रभु के आशीर्वाद के रूप में नहीं लिया जितना की वैश्विक कोविड महामारी के समय ऑक्सीजन की भयंकर कमी के दौरान लिया। मित्रों और परिजनों से मिलना, शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय जाना, रेस्टोरेंट में खाना खाना, ये सारी सहज सी लगने वाली बातें कोविड महामारी के दौरान सबसे मुश्किल कार्य बन गईं।
हमें अपने जीवन से और ज्यादा की उम्मीद करने की बजाय वास्तविक्ता में हमारे पास पहले से मौजूद परमात्मा के अनंत उपहारों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। शुद्ध और पवित्र मन से कृतज्ञता अर्पित करने वाले और इस कृतज्ञता को स्वीकार करने वाले दोनों को ही आपार ख़ुशी मिलती है। एक साधारण सा 'धन्यवाद' शब्द किसी स्थिती या रिश्ते को पूरी तरह से बदल देने की क्षमता रखता है। नि:स्वार्थ भाव से की गई मानव सेवा इसी कृतज्ञता बोध का स्वाभाविक सा परिणाम है। यहां यह ध्यान रखना होगा की कृतज्ञता का भाव कुछ पाने की अपेक्षा के साथ जुड़ा हुआ न हो और शुभकामना व्यक्त करने का हमारा हाव-भाव सहज हो, यह कुछ पाने की अपेक्षा के भाव से लिप्त न हो। यदि हम शुभ और नि:स्वार्थ भाव से किसी को एक गिलास पानी भी अर्पित करते हैं और अगर उनमें निरंकार का रूप देखकर जल की सेवा करते हैं तो वह सेवा आनन्द और ख़ुशी का कारण बन जाती है। किसी को उपहार देना, मिल-बांटकर खाना और दूसरों की देखभाल करना आदि अत्यंत उत्कृष्ट और आनंद देने वाले कार्य हैं। इस प्रकार की गई नि:स्वार्थ सेवा दंभ या अहंकार की भावना के स्थान पर मानव सेवा का सुन्दर रूप बन जाती है।
जब आप अपने आपको यह याद भर दिलाते हैं कि पिछली बार आपने किसी को कुछ कब दिया था तो यह विचार मन में आते ही आपके चेहरे पर मुस्कान ला देता है। किसी को कुछ भेंट करना प्रकृति के हर अंग का एक अंतर्निहित गुण है। सूर्य, नदियां, वृक्ष, पृथ्वी और वायु, सभी हमें बिना किसी अपेक्षा के निरंतर अपने संसाधन प्रदान करते रहे हैं, लेकिन इंसान स्वार्थी हो जाता है और इसके पास जो कुछ भी है उसका थोड़ा सा भी हिस्सा किसी को देकर वह बदले में बहुत अधिक की उम्मीद करता है, बहुत सारी शर्तें लगाने लगता है। यह स्वभाव ही हमारे दुख का कारण है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हमें जीवन में आगे बढऩे की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। इसका अर्थ तो केवल इतना ही है कि हमें कर्म करने के बाद, उसके परिणाम को परमात्मा की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। हमें संतुष्ट रहना चाहिए और प्रभु का धन्यवाद करना चाहिए कि हमें यह सब कुछ प्राप्त हुआ है। इसका मतलब है कि हम सबका समग्र विकास हमारे परस्पर संबंधों पर आधारित है और यह सार्वभौमिक है। अगर हमारे पड़ोसी के घर में आग लगी है तो हम अपने घर के बचने की उम्मीद नहीं कर सकते। एक अन्य पहलू जो हमारे सुखमय जीवन में परेशानी पैदा करता है, वह है दूसरों के प्रति घृणा और शत्रुता का भाव रखना। इसका कारण हमारे निर्णयों, मान्यताओं और आलोचनाओं में निहित हो सकता है जो हमारे अहंकार से उत्पन्न होते हैं। एक झूठी गर्वोक्ति, सच्चे आत्मबोध के प्रति हमारी अज्ञानता से जुड़ी होती है।
जब हम अपनी वास्तविक पहचान कर लेते हैं, जो कि हमारी जाति, रंग, नस्ल, धर्म या राष्ट्रीयता आदि से कहीं परे है, तो उपरोक्त सारे दोष दूर हो जाते हैं और ये हमारे मन में शुद्ध प्रेम और करुणा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। फिर किसी के प्रति हमारे निर्णय व मान्यताएं दूसरे को 'संदेह का लाभ' देने के हमारे दृष्टिकोण में बदल जाती हैं। फिर हम स्वयं को दूसरों में देखते हैं और बीच में दीवार खींचने या युद्ध करने के स्थान पर संसार की विविधता का आनन्द लेते हैं। आत्मज्ञान की एक ही किरण हमारे मन की भटकन को समाप्त कर सकती है। मन जो आदतन इस क्षणभंगुर दुनिया से जुड़ा हुआ है; इसे स्थिर और जागरूक बनाने के लिए, गुलाब जल की एक बूंद की तरह जो पानी के पूरे बर्तन को ही सुगंध से भर सकता है, जो बड़ा और अनसुलझा लगता है वह नन्हा और अप्रासंगिक हो जाता है, जो पराए और विपरीत लगते हैं वे प्यारे हो जाते हैं। संसार के शाश्वत स्रोत परमात्मा का सतत ध्यान, सुमिरण इस आनंदमय अवस्था में रहने का एकमात्र उपाय है।
सुमिरण हमारे मन को सकारात्मक और सुखद विचारों से भरकर हमें हमेशा ख़ुश रहने का मार्ग प्रशस्त करता है। यहां सुमिरण में यह जरूरी नहीं है कि हमें ध्यान की किसी विशेष मुद्रा में ही बैठना है और किसी नाम या मंत्र आदि का जाप करना है। सोचें कि क्या हमें अपने प्रियजनों को याद करने के लिए किसी निश्चित मुद्रा में बैठना होता है? सच तो यही है कि हम अपने निज जनों को सहज ही नहीं भूलते हैं। इसी तरह, एक बार जब हम निराकार को जान लेते हैं, इसका अनुभव कर लेते हैं, फिर हमें इसे याद करने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि हम इसे कभी भूलते ही नहीं हैं। सार रूप में कहें तो फिर हमारा चलना, बोलना, खाना और सोना आदि सभी कुछ ध्यानमय हो जाता है।
एक 'निष्ठावान' आत्मा अन्य प्रबुद्ध आत्माओं का संग चाहती है अर्थात् हमेशा सत्संग की तलाश करती है। आत्मा दूसरे सन्तों के दिव्य अनुभवों को सांझा करती है, सीखती है और आपसी विश्वास और समझ को मजबूत करती है। सेवा, सुमिरण, सत्संग का यह तिहरा सूत्र ज्ञान प्राप्ति के बाद सुख और आनन्द का एक निश्चित मार्ग प्रशस्त करता है। हमारे मन की ख़ुशी बाहरी दुनिया में, हमारी उपलब्धियों में या परिस्थितियों में नहीं है; यह हमारी अपनी अन्तर्दृष्टि और पसंद में निहित है। अगर कोई हमें ख़ुशी दे सकता है तो यह हम स्वयं हैं। इस आत्म-प्रेम की अवधारणा में जो चीज़ निहित है वह स्वयं से स्वार्थ भरा प्यार नहीं, बल्कि सच्ची समझ के साथ स्वयं से प्रेम है। इस 'स्व' का स्रोत सर्वव्यापी निराकार परमात्मा है। यह 'स्व' मन, शरीर और भौतिक उपलब्धियों से परे है। जब एक बार स्वयं का बोध हो जाता है फिर हम अपने मन, शरीर और सम्पत्तियों में खचित हुए बिना उनसे जुड़े रह सकते हैं। पृथकता युक्त इस अनुराग की जादुई दृष्टि सच्चे सुख का मार्ग है, जिसे विभिन्न सन्तों-महात्माओं द्वारा स्पष्ट रूप से बताया गया है। बाल्यावस्था में अधिकांश समय हम इसी अवस्था में रहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमारे आस-पास की दुनिया के संस्कार हमें उलझाते जाते हैं, जिससे हमारे अन्दर का जो बाल मन है उसके जीवित रहने के लिए बहुत कम सम्भावना बचती है। इस प्रकार यदि हम खुश रहना चाहते हैं तो हमें एक बच्चे की तरह भूलना और क्षमा करना सीखना होगा। इसके लिए हमें एक बच्चे की तरह गाना और नाचना होगा।
मानव मन की चिंता और व्यग्रता का एक अन्य कारण भय और भ्रम है। रोग, मृत्यु, असफलता या विपन्नता आदि के भय के साथ हमारी पहचान, हमारे जीवन और उसके उद्देश्य का भ्रम। इन पर भी पुन: ज्ञान के प्रकाश से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। जब व्यक्ति यह जान लेता है कि मृत्यु, बीमारी और बुढ़ापा आदि मानव जीवन के अपरिहार्य अंग हैं और हमारा जीवन, हमारे शाश्वत अस्तित्व के सागर में एक बूंद मात्र भर है, तो हमारा यह भय भी गायब हो जाता है। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी मन में डर पैदा कर सकती है क्योंकि उसकी छाया किसी को सांप की तरह लग सकती है, जिससे भ्रम पैदा हो सकता है लेकिन जैसे ही प्रकाश होता है और सच्चाई स्पष्ट होती है फिर कोई भय या भ्रम नहीं रहता है। भय अज्ञानता का परिणाम है। आध्यात्मिक जागरूकता और परमात्मा का ज्ञान सभी प्रकार के भय को दूर करता है।
जब हमारे मन की नैया जीवन रूपी महासागर में डगमगाती है, तो सत्य से जोड़कर उसे स्थिरता प्रदान की जा सकती है, यह स्थिरता ही प्रसन्नता का रूप बन जाती है। लोभ और स्वार्थ तो हमें केवल सतही सुख ही दे सकते हैं, वह भी बहुत अल्पकाल के लिए, बल्कि इस रास्ते पर अंतिम परिणाम हमेशा विपरीत और हानिकारक ही होता है। सत्य पथ को जानकर और उस पर चलकर ही स्थायी सुख प्राप्त किया जा सकता है, यह भले ही लंबा और चुनौतीपूर्ण कार्य होता है लेकिन निश्चित रूप से यह आनंदमय और लाभकारी होता है।
व्यावहारिक अध्यात्म के उपयोग से ही शाश्वत सुख का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। अध्यात्म का सहज अर्थ है 'एक को जानो, एक को मानो, एक हो जाओ'। व्यावहारिक अध्यात्म का अर्थ है अपने हर कर्म को नम्रतापूर्वक निरंकार को समर्पित करके, सभी की नि:स्वार्थ सेवा के द्वारा संसार में एकत्व की स्थापना करना और एकत्व को जीना। हमने देखा है कि कैसे कोविड महामारी के दौरान सम्पूर्ण मानवता एक साथ आई और दुनिया भर के लोग सभी मतभेदों को पार करते हुए एक-दूसरे का सहयोग करने के लिए सामने आए, चाहे वह भेद जाति, पंथ, रंग, धर्म का रहा हो या राष्ट्रीयता का भेद रहा हो। हमें याद रखना होगा प्रतीकात्मक रूप से भले ही हमारी व्यक्तिगत पहचान पत्तियों, फलों, शाखाओं या फूलों के रूप में हो सकती है जिन्हें मानवता कहा जाता है लेकिन हमारी मौलिक पहचान एक पेड़ ही है और हमारा मूल यह निरंकार-प्रभु है। हममें से कोई भी अलग-थलग रहकर जीवित नहीं रह सकता, हम भले ही अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन हम सब एक ही हैं। एक होना ही प्रसन्नता का द्वार है।
आइए, आशा करें, प्रार्थना करें और यह सुनिश्चित करने के लिए काम करें कि यह प्रभु हमें एहसास दिलाने के लिए एक और महामारी न आने दे, क्योंकि एकत्व ही श्रेष्ठ है और एकत्व में ही ख़ुशी है। सार रूप में, सत्य की अनुभूति ही हमारे मन को स्थिर और संतुलित बनाती है, जिससे अपार सुख की प्राप्ति होती है। ख़ुशी पछतावा करने में नहीं है बल्कि अतीत से शिक्षा लेने में है और चिंता त्याग कर अपने उज्जवल भविष्य के लिए काम करने में है। जागरूकता, स्वीकारिता और कृतज्ञता के साथ वर्तमान क्षण में रहना ख़ुशी का आधार है। ख़ुशी मुक्त होकर भी मर्यादित रहने में है। खुशी आकाश छूकर भी पांव ज़मीन पर रखने में है। ख़ुशी इस विशाल जीवन सागर में स्वाभाविक रूप से बहने में है, न कि तैरने में। ख़ुशी इस एक के साथ एकाकार होने में है।
प्रस्तुति: सी. एल. गुलाटी, प्रधान संत निरंकारी मंडल ,दिल्ली